गुरुवार, 12 मार्च 2015

ज़िन्दगी का गणित


कोण नज़रों का मेरे  सदा सम  रहा
न्यून तो किसी को अधिक वो लगा

घात की घात क्या जान पाये नहीं
हम महत्तम हुए न लघुत्तम कहीं

रेखा हाथों की मेरे कुछ अधिक वक्र थीं
कैसे होती सरल  फ़िर भला ज़िन्दगी

तजुर्बे ज़िन्दगी के कटु-कड़े थे बड़े
सत्य सम प्रमेय सदा सिद्ध होते रहे

कोशिशें की बहुत कुछ यहाँ सीख लूँ
मैं गुणा-भाग, बाक़ी-जमा सीख लूँ

शौक़ ये भी बड़ा कुछ गणित सीख लूँ
जीवन जीने की आसाँ जुगत सीख लूँ

नफ़े के सबक़, ज़ियाँ के फ़लसफ़े
सीख़ पाये न हम ये सबक़ थे कड़े

सर्वसमिका नहीं बैठ पाई कभी
'अचर' ज़िन्दगी का तजरबा यही

समीकरण ज़िन्दगी के बनाते रहे
उफ़ जटिल थे बड़े वे मुए नकचढ़े

पक्ष दोनों कभी ना मिला पाये हम
एक ज़्यादा कभी दूजा होता था कम

गिर्द रिश्तों के आव्यूह बड़े ख़ुशगवार
हर क़दम एक सू, व्यूह थे बेशुमार

ख़याली संख्या से थे ख़ाब मेरे कहीं
साँच की भूमि पर वे न उतरे कभी

रूढ़ संख्या सी जड़ थीं बड़ी रूढ़ियाँ
तोड़ पाएं न हम वे कड़ी बेड़ियां

'मान कर' हल करें सोचा था इस तरह
'मूल' निकले सभी क्यों ग़लत बेतरह

सोचते थे ज़िन्दगी इक सदिश राशि हो
भर दामन मुहौब्बत की धनराशि हो

हो न पाया मगर अब कहूँ और क्या
ज़िन्दगी का गणित है यही फ़लसफ़ा

कम न होती अब ग़म की बारंबारता
शून्य ख़ुशी का समुच्चय सदा ही रहा

शिल्प ना रस है ऐसी ये बनी कविता
है नहीं ज़ीस्त में हो कैसे इसमें भला

फ़िर भी मेरी ख़ुदा से यही है दुआ
ख़ुशियों की बढ़े सबकी प्रायिकता

रचना- निर्दोष कांतेय

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घात- power

प्रमेय- theorem

नफ़ा- लाभ

ज़ियाँ- हानि

अचर- constant

समीकरण- equation

आव्यूह- matrices

सू- evil

ख़याली संख्या- imaginary number

रूढ़ संख्या- prime no.

मूल- mathematical root

ज़ीस्त- life

प्रायिकता- probability

रविवार, 1 फ़रवरी 2015

माहिया


दिल तोड़ नहीं देना
सोज़ के' सागर में
यूँ छोड़ नहीं देना

क्या शोख़ नज़ारे हैं
पूछ ज़रा दिल से
हम कौन तुम्हारे हैं

हर ओर उदासी है
बोल रहे हैं वो
ये बात ज़रा सी है

मासूम जवानी है
इश्क़ ख़ता कैसी
सबकी ये' कहानी है

ये रात सुहानी है
नींद हुई बैरन
जगते कट जानी है

हैं कौन यहाँ अपने
तोड़ गये सारे
आँखों में छिपे सपने

ये दर्द पुराना है
पर उनका अब भी
इस दिल में' ठिकाना है

उम्मीद भरे नैना
प्रीत लगी तुमसे
दिल तोड़ नहीं देना

ये प्यार नहीं करना
इश्क़ हुआ जब से
अब मुश्किल है जीना

ये क़ातिल हैं रातें
आग लगाती है
बे मौसम बरसातें

- निर्दोष दीक्षित

शनिवार, 24 जनवरी 2015

'कह मुकरी'

बिन उसके मोरि रैन कटै न,
जीवन का अंधियार मिटै न,
उसके बिन मैं जल बिन मछरी,
ए सखि साजन? ना सखि बिजुरी!

लई जावै मोरा परिवार,
मोहे घुमावै हाट बजार,
कभी घुमावै नदी पहाड़ी,
ए सखि साजन? ना सखि गाड़ी!

उसको सोचूं नींद न आवै,
उसकी सुधि ही मन लरजावै,
हर आहट निरखूँ चहुं ओर,
ए सखि साजन? ना सखि चोर!

मैं रखूँ उसको अंग लगाय,
बिनु उसके अब जिया नहिं जाय,
हाथ पकड़ मैं झाड़ूं स्टाइल,
ए सखि साजन?नहिं मोबाइल!

जिसकी सीस छाँह मैं  पाऊँ,
उसकी ओट म लाज बचाऊँ,
पर ऊ मोरे जी का झंझट,
ए सखि साजन?ना सखि घूँघट!

देखा उसको भरे बाज़ार,
एकटुक देखन लगी निहार,
ठिठकी जैसे बिगरी गाड़ी,
ए सखि साजन? ना सखि साड़ी!

रचनाकार- निर्दोष दीक्षित

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काव्य विधा- कह मुकरी छंद

छंद परिचय-

                  यह दो सखियों के बीच का संवाद है जिसमे एक सखी दूसरी सखी से अपने प्रिय की बातें बिना उसका नाम लिए बताती है,जब सखी पूछती है कि क्या तुम अपने साजन की बात कर रही हो तो उसे लाज आती है और वो मुकर जाती है तथा किसी और चीज़ का नाम बता देती है जिसका सम्बन्ध पहले कहे गए कथ्य से होता है।

शिल्प- यह चार पंक्तियों का छंद होता है।
प्रथम तीन पंक्तियों में 16 मात्राएँ तथा अंतिम पंक्ति का मात्रा भार 15,16 या 17 हो सकता है क्योंकि यह उस संज्ञा पर निर्भर करता है जो कही जाती है।

बुधवार, 14 जनवरी 2015

कल्मष धो लें....

आप सभी को मकर संक्रांति की हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं

नदी नहीं यह गंगा केवल,
जीवन का आधार यही।

सदियों से इस धरती पर ये,
जग की तारणहार रही।

बहती है भारत में जैसे,
अमृत की कोइ धार बही।

गंग मलिन जो करता उसको,
प्यार नहीं अंगार चही।

गंगा के निर्मल जल सा हम,
अंतस से निर्मल हो लें।

कर्कशता सब त्याग आज हम,
प्यार भरी वाणी बोलें।

अवसर है संक्रांति मकर का,
प्यार फ़िज़ाओं में घोलें।

महापर्व पर महाकुम्भ में,
जीवन का कल्मष धो लें।

रचनाकार- निर्दोष दीक्षित

विधा- लावणी छंद/कुकुभ छंद

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

कथा सुनो शबाब की

   
     कथा सुनो शबाब की
     सवाल की जवाब की
     कली खिली गुलाब की
     बड़े  हसीन  ख़ाब  की

              नया नया विहान था
              घड़ी घड़ी गुमान था
              हसीन सा बहाव था
              जुड़ाव था लगाव था

      तभी विपत्ति आ गई
     तुषार  वृष्टि  छा गई
      बहार को  बहा  गई
      ख़ुमार  हो  हवा गई

              नक़ाब में रक़ीब थे
              सभी वही क़रीब थे
           हमीं बड़े अजीब थे
           हमीं  बड़े  ग़रीब थे
             

रचना- निर्दोष दीक्षित

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काव्य विधा- प्रमाणिका छंद

विधान- लघु गुरु के 4 जोड़े, चार चरण

मात्राभार- (12 12 12 12 )4

गुरुवार, 8 जनवरी 2015

लालच से जुड़ै न रिस्तेदारी

लरिका अक्याल मिसरा जी का, 
उई बड़े जतन से पालेन।
खान-पान, सिच्छा-दिच्छा मा, 
कमी न कउनौ राखेन।

होनहार लरिका उनका जब, 
लिख-पढ़ि कै तइयार भवा। 
फिर कउनौ सरकारी दफदर मा,
बड़का ओहदेदार भवा।

म्वाछन पर ताव धरे मिसरा जी,
लड्डू सबका बांटेन।
वहिके बाद मुहल्ले मा ना,
फिर कउनौ का गांठेन।

जाने केत्ते बिटिया वाले,
उनके घर का दऊरि परे।
ब्याहै बदि कै लरिका के,
उनके द्वारे आन गिरे।

मिसरा जी अइंठे-अइंठे,
उन सब ते बतलावैं।
दान-दहेज औ लेन-देन के,
ऊँचे दाम लगावैं।

कबहूँ कहैं गाड़ी चौपहिया,
कबहूँ मांगैं बंगला।
तुर्रा उस पे लड़की चाही,
सुन्दर  लक्ष्मी- कमला।

उनके लालच के आगे,
सब के सब मायूस भये।
भूखे सियार सा देखि के उनको,
बिटिया वाले लऊटि गये।

अइसे मा याकै सुकला जी,
उनके द्वारे आये।
म्वाछैं अइंठत मिसरा जी,
फिर वहै राग फइलाये।

सुकला जी मुस्का के बोले,
सुनौ बात मिसरा जी।
लेन देन औ दान दहेज,
हर बात पे हम हन राजी।

जइसे जउन जहाँ जो चहिहौ,
वइसै सब कुछ होई।
स्वागत, खान-पान से लइके,
कमी न कउनौ होई।

आगे बोले- द्याखौ भइया,
हर बात तुम्हारी मानी।
पर याक बात हमरी तुम मानौ,
तौ तुमका हम जानी।

लबराने मिसरा जी मुस्काये,
बातन में मिसरी घोले।
बात आपकी मानब हमहूँ,
बड़े जोर से बोले।

सुकला बोले बाद बिहाव के,
लरिका हमरे घर आई।
अपनी प्यारी बिटिया खातिर हम,
लइबै घर का जंवाई।

बिदकि परे सुनि कै मिसरा जी,
यू कइसे होइ पाई?
लरिका अक्याल,लाठी बुढ़पन की,
तुम्हरे घर कइसे जाई?

सुकुल कहेन, मुँहमांग दाम हम,
जउनी चीज का द्याबै।
फिर काहे ना वहिका हम,
अपने घर लई जाबै?

लरिका तुमका प्यारा है तौ,
बिटिया हमका प्यारी है।
लरिका कुल का दीपक है तौ,
बिटिया घर उजियारी है।

गइया भइंसी, लरिका बिटियन मा,
कुछ तौ अंतर होन चही।
अपने ई लरिका बिटिया,
कउनौ लकड़ी-लोन नहीं।

पबित्र बंधन सादी- बिहाव,
एहिमा सउदेबाजी ठीक नहीं।
तुमहीं कहौ हम कहेन ठीक या 
कउनौ गन्दी बात कही।

सिटपिटान मिसरा जी एकदम,
गहिरी सोच म' परि गे।
भाव बदलि गे चेहरे के औ,
दीदा उनके भरि गे।

भरे गले से बोले-सुकला जी,
भै गलती हमसे भारी।
धन्नबाद, मानित है, लालच से,
जुड़ै न रिस्तेदारी।

रचना-  निर्दोष दीक्षित

मंगलवार, 6 जनवरी 2015

नशा सा हुआ...

महाभुजंगप्रयात सवैया छंद

नशा सा हुआ है तुझे देखके यूँ,
सुरापान जैसे कि मैंने किया है।

बुरा काम तूने किया है सुनैना,
ख़ुदारा हमारा चुराया जिया है।

मुझे प्यार से देख लो आज भी तो,
खड़ा सामने ये तुम्हारा पिया है।

ख़ुदा की रही ख़ूब "निर्दोष" मर्ज़ी,
वफ़ा का दिलों में जलाया दिया है।

- निर्दोष दीक्षित