शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

स्मृति की सिलवटें

स्मृति की सिलवटें गहरी होने लगी हैं
दब के रह गए उसमे कई प्रियजन ;
संवेदनाएं निष्क्रिय हो चली हैं
जो कभी आंदोलित करती थी मन। 
जर्जर आस्थायें बाट जोहती हैं जीर्णोद्धार की
' प्रेम ' तलाश में है किसी नई परिभाषा की
कहने को तो मंहगाई बढ़ी है
पर अवमूल्यन हुआ है ' मूल्यों ' का 
अब ' सम्मान ' शब्द है किसी पुराने शब्दकोष का
और आधुनिकता नाम है ' परम्पराएँ ' तोड़ने का
' स्वार्थ ' हर सम्बन्ध  का स्नेहक है
ये समय है अभिनय का
और हर शख्श है अभिनेता

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

तेरी आँखें हैं...


तेरी आँखें हैं दरवाज़े किसी मंदिर के 
खुली रखना ज़रा मेरे माबूद का दीदार होने दे... 

ऐ मेरे महबूब ज़रा देर और ठहर 
मुझे अपने वजूद से प्यार होने दे....

सुन लेना मेरा फ़साना भी एक दिन
मुकम्मल इसे मेरे यार होने दे...

ख़ुश्क थीं आँखें तेरे इंतज़ार में 
गले मिल के मुझे ज़ार-ज़ार रोने दे...

आख़िर मुहौब्बत हिजाब में पलेगी कब तलक
इसका चर्चा अब सरे बाज़ार होने दे...

ग़म के बिना ख़ुशियों की क़ीमत क्या है
ग़मों से भी मुझे दो-चार होने दे...

कुछ देर सब्र कर ऐ मेरे मस्जूद
सब्ज़-बाग़ ज़रा मेरे गुलज़ार होने दे...

उनका सजदा भी होगा एक दिन मेरी ख़ातिर
बस मेरी क़ब्र को मज़ार होने दे... 
  

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

ये आँसू .....

कभी-कभी दिल को जलाते हैं तेज़ाब बनकर आँसू
गिरते हैं कभी किसी बेआबरू का हिजाब बनकर  आँसू

कोई जब किसी अज़ीज़ को खोता है
या कोई ग़म आसपास होता है
अनहद बहते हैं तब दरिया-ए-आब बनकर आँसू
कभी-कभी दिल को जलाते हैं तेज़ाब बनकर आँसू

मिले जब कामयाबी किसी सपने की तरह
या मिले ख़ुशी कोई प्यारे तोहफ़े की तरह
बरबस बरसते हैं जनाब रह-रहकर आँसू
कभी-कभी दिल को जलाते हैं तेज़ाब बनकर आँसू

जब कभी याद सताये अपनों की
या दिल को ठेस लगाये,अपना ही
रिसते हैं धीरे-धीरे बेहिसाब छनकर आँसू
कभी-कभी दिल को जलाते हैं तेज़ाब बनकर आँसू

रह जाए कोई ज़िन्दगी की ज़रुरत अधूरी
या रह जाए कोई मुराद होते-होते पूरी
अनायास दिख ही जाते हैं कोई बुरा ख़्वाब बनकर आँसू
कभी-कभी दिल को जलाते हैं तेज़ाब बनकर आँसू

अभी तो ग़म उठाने का ये शौक़ नया-नया है
आँसू भी नए हैं और दर्द भी नया-नया है
मज़ा तो तब होगा जब आयेंगे पुरानी शराब बनकर आँसू
कभी-कभी दिल को जलाते हैं तेज़ाब बनकर आँसू

शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

उम्मीदें जवाँ हैं


अबकी अपने बग़ीचे में
कुछ बीज दबा दिए मिट्टी में
देखा....पूरा बग़ीचा व्याकुल है भारी गर्मी से
पौधे, मुरझाये-अलसाये ले रहे अन्तिम साँसें 
पर अभी आशा की एक किरण दिखती है
आकाश की ओर नज़र उठा मैं भी देख लेता हूँ
सोचता हूँ बादलों के झुण्ड आयेंगे,
मेरे बग़ीचे पर अमृत बरसा, हरा-भरा बनायेंगे
मेरे बीजों से अंकुर फूटेंगे,महकेगी सारी फुलवारी 
पुष्प से फल, फल से बीज के चक्र चलेंगे,
वो किनारे नींबू की डाल पर बैठी,
नन्हीं सी उदास चिड़िया,
मेरे आँगन में फुदकेगी....चहकेगी;
किसी भी क्षण प्रथक होने को तत्पर,
पौधों के पीले पत्ते भी,
निराश नहीं हैं अभी;
सचमुच! कुछ बादल आए
लहराते, किसी रूपसी की घनी श्याम अलकों की तरह,
उमड़-घुमड़, बग़ीचे पर छाए
पर यह क्या ?
सबकी अपेक्षाओं को उपेक्षित कर
बिना बरसे ही चले गए वो निष्ठुर
मैंने पूछा ऐसा क्यों ?
बादलों ने दोष दिया उस पवन को,
जो बहा ले गई उन्हें अन्जान दिशा में।
अब मैंने स्वयं से प्रश्न किया
दोष किसका है 
भाग्य का या कर्म का ?
लेकिन मैं अभी हताश नहीं हूँ
उस नन्हीं चिड़िया की सूनी आँखों में
आशा की चमक अभी बाक़ी है........
नए बादलों के झुण्ड आयेंगे,
मेरे बग़ीचे पर अमृत बरसा, हरा-भरा बनायेंगे।