रविवार, 25 सितंबर 2011

नया सवेरा


भावनाओं के अतिरेक में
संभावनाएं फूट पड़ीं
टूट गयीं प्राचीरें विश्वास की
विवेक कुछ देर छटपटाया भी
चैत्य की पगडण्डी पर धुंध सी छा गई
हम अंतस में उजाले की कोठरी ढूंढते रहे
पर तमस्विनी तो यौवन पर थी
तमीश भी न जाने कहाँ चला गया
हिय ने हया का आवरण भी न रखा
और अंततः प्रस्फुटित हो गईं जिह्वा की कोरें
किन्तु 'उनकी' कुटिल स्मित ने
स्तिमित कर दिया समय को
उनकी अपरिचित चितवन ने
कुछ भी शेष न रखा…..
निमिष भर में ढूह ढह गए रेत से
हम पुनः उलझ गए उसी मकड़जाल में
यकायक धुंध छंटने लगी
प्राची भी रक्तिम होने लगी
सूर्य उदित होने को है
लगता है नया सवेरा आने को है.....

रविवार, 4 सितंबर 2011

कुछ अपने मन की....



पीड़ा ये आह!

बुझती हर चाह 
नीरव चक्षु
बहते अश्रु,
मन के बवंडर
स्वप्नों के खण्डहर,
संकीर्ण लोग
ऋण व योग,
धुंधले चित्र
मित्र विचित्र, 
पग-पग रण
मन के व्रण,
छल ये भीषण
और विभीषण....
अनजान सा भय
लगे शत्रु समय।
क्या-क्या सहूँ
अब क्या कहूँ;
आवारा सोच को 
सपनों का नाम दूँ
या जीवन वृत्त 
प्रारब्ध मान लूं..... 

शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

मैं हूँ एक सागर

मैं हूँ एक सागर,
प्रेम का !
लोग आते हैं मेरे पास
मैं उन्हें अपने में समेट लेता हूँ
वे मुझमें डूबते, उतराते.......किनारे 
विभिन्न प्रकार की क्रीड़ा करते......स्वेच्छा से
और अंत में मुझे मलिन समझकर चले जाते
जानकर कि यह मलिनता उन्हीं की है 
उदास ................
मैं रह जाता हूँ ठगा सा, देखता......
उन्हें जाते हुए
किसी नए आगंतुक की अब प्रतीक्षा नहीं 
किसी नए आगंतुक के आने से अब उत्साह नहीं
क्यों कि अंततः मुझे
मृदु होकर भी कटु
निर्मल होकर भी मलिन बनना पड़ता है
फ़िरभी लोग आयेंगे, मुझसे खेलेंगे
क्यों कि मैं सागर हूँ.......
प्रेम का

हमपे जो गुज़री.......


कितना पाक था रिश्ता हमारा मगर,
रक़ीबों की दुनिया ने इक फ़ासला हमारे दरमियाँ बना दिया।
अभी तलक तो सब ठीक था मगर,
सोचता हूँ किन ख़ामियों ने मुझे बुरा इन्सां बना दिया।

लगाये तो फूलों के बगीचे ही मैंने,
बदकिस्मती ने मेरी, काँटों का गुलिस्ताँ बना दिया। 

ख़्वाब जो सच हो सकते थे यक़ीनन,
इस बेदर्द ज़माने ने अलिफ़-लैला की दास्ताँ बना दिया। 

ख़ामियों को उनकी इक ख़याल भी नहीं बख्शा मैंने,
ग़लतियों को हमारी,उन्होंने ख़ामियां बना दिया।

दर्द में डूबे इस दिल के लिए,
ख़ुशियों का इक मकां चाहा था मगर,
उस बेदर्द ने ग़म का आशियाँ बना दिया।

अपना दर्द कहते तो किसे और कैसे?
उन्हें खोने के डर ने मुझ ग़रीब को बेज़ुबां बना दिया।

तन्हाई में उनकी यादों के मेरे साथी,
ये अश्क़ भी मेरा साथ छोड़ चले,अब मुझे और तन्हां बना दिया।

दिल पे चोट लगी है कुछ ऐसी कि,
ज़ख्म तो शायद भर भी जाएँ,
क्या होगा जो ये ज़ख्म का निशाँ बना दिया।

बड़ी मुहौब्बत थी ज़िन्दगी से अब तक,
उनकी बेरुख़ी ने मौत को कितना आसाँ बना दिया।