मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

आओ लौट चलें...


अपना चश्मा ही रंगीन था,किससे गिला करें...
            ज़िन्दगी तलाशते रहे इन बे-रंग फ़ज़ाओं में

धूप बड़ी सख़्त है कमबख़्त, चलो चलें…
            उसी बूढ़े से दरख्त की छांव में

आओ लौट चलें, बस्तियाँ बसा लें...
            फ़िर से अपने उजड़े गाँव में

फ़क़त तन्हाई है,तीरगी है...
            इस शहर की कांव-कांव में

है कहीं बाद-ए-सबा तो माँ के आँचल में...
                 थक गया हूँ इन गरम हवाओं में

पता ही ग़लत दे गए जन्नत का नामुराद...
                 अरे.. वो तो यहीं थी मेरी माँ में पावों में


***तीरगी-:अँधेरा,  बाद-ए-सबा-:सुबह की ताज़ी हवा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें