शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

बिग बॉस का घर और 'सनी लियोन'

भैया!!!... बिग बॉस ने अपने घर की नीरसता को दूर करने के लिए एक विदेशी... अरे नहीं....'भारतीय मूल की' विदेशी मेहमान को अपने घर में बुलाया है.....भई, बड़ी ख़ूबसूरत हैं वो... नाम बताया गया 'सनी लियोन' और आते ही उन्होंने यह ऐलान कर दिया है कि वे वेश्या नहीं हैं। अरे भैया...उन्हें वेश्या कौन गुस्ताख़ कह रहा है... अरे हम हिन्दुस्तानी विदेशों से आने वाली ख़ूबसूरत मेहमानों को वेश्या नहीं समझते.... विदेशों में भले ही हमारे पूर्व राष्ट्रपति तक का सम्मान न होता हो, हम हिन्दुस्तानी 'अतिथि देवो भव', मंत्र का निरन्तर जाप करते हुए विदेशी मेहमानों को पूरा सम्मान देते हैं... फ़िर वो चाहे 'हिना रब्बानी' हों या 'लेडी गागा', हम उनके साथ बड़े प्यार-मुहौब्बत और सम्मान से पेश आये... इसलिए मैडम आप बिलकुल निश्चिन्त रहें... लेकिन ध्यान रहे हमारे इस 'प्रेमी' स्वभाव को हमारा भोंदूपन न समझ लीजियेगा, तसलीमा नसरीन जैसी विदेशियों के देश में घुसने पर भी हमें सख्त ऐतराज़ है।

  ऐसा नहीं है कि केवल हम हिन्दुस्तानी ही प्यार-मुहौब्बत का कॉपी-राईट लिए बैठे हैं, 'रिचर्ड गेर टाइप' कुछ फ़राख़-दिल विदेशी भी हिन्दुस्तानियों के साथ 'बड़े प्यार' से पेश आते हैं..... ख़ैर बात करते हैं  'सनी लियोन' की... बताया गया कि वे 'पोर्न स्टार' हैं..... अमां! राक स्टार, फ़िल्म स्टार, सुपर स्टार, मेगा स्टार, फाइव स्टार  तो सुना था, ये 'पोर्न स्टार' क्या बला है........ भई जब इतने गर्व से बता रही हैं तो कोई सम्मानित कार्य ही होगा..... 

   हमने तो कभी 'सनी लियोन' का नाम भी नहीं सुना था और इस वक़्त हिन्दुस्तान भर में मेरे जैसे कम सामान्य ज्ञान वाले, छोकरे और बुज़ुर्ग इन्टरनेट आदि की सहायता से इस पर शोध कर रहे हैं....पर ये क्यूरियासिटी के कीड़े भी न, बड़े बेशर्म होते हैं जनाब...एक नौजवान से पूछ ही बैठा- भईया! ये 'पोर्न स्टार' क्या होता है... तंज़ भरी नज़रों से देखकर बोला... अब दद्दू इतने शरीफ़ भी न बनो... मैंने कहा- अमां! बताओ तो सही!!!... उसने कहा- अरे दद्दू!! हम हिन्दुस्तानी सबसे ज़्यादा इन्टरनेट किसलिए इस्तेमाल करते हैं..... हाँ!... हाँ! वही-वही, आप ठीक समझ रहे हैं.....ये 'सनी लियोन' "वो वाली" फ़िल्मों की हिरोइन हैं.... इन्होने इस क्षेत्र में बड़ा नाम कमाया है... इसलिए ये 'पोर्न स्टार' हैं, आप इतना भी नहीं जानते..... मेरे बड़प्पन को बड़ा झटका लगा, मैंने शर्मिंदगी छिपाकर, अपनी ग़ैरजानकारी पर पर्दा डालते हुए कहा- अमां जाने दो यार! शक्लें कौन याद रखता है..... अब मुझसे सहमत होने की उसकी बारी थी

   एक बात ये भी कि जब कमाल राशिद खान(KRK) जैसे 'बड़े' डायरेक्टरप्रोडयूसर भी उन्हें नहीं जानते तो मेरे जैसे मामूली आदमी के लिए शर्मिंदा होने की ज़्यादा ज़रुरत नहीं है....
  
   अच्छा...!!! तो  अब समझ में आया कि वो मोहतरमा ठीक ही फ़रमा रही हैं, सचमुच वे वेश्या नहीं हैं...वे अपनी इज़्ज़त संभाले ग़ुमनाम बंद कमरों में नहीं जातीं.... वे पुलिसिया रेड का अनावश्यक दर्द मोल नहीं लेतीं...वे तो ग्लैमर वर्ल्ड का हिस्सा हैं, वे किसी व्यक्ति विशेष को व्यक्तिगत सुख न देकर, खुले तन-मन से हम सबका बिना किसी भेद-भाव, मनोरंजन करती हैं.....वे तो पब्लिक प्रॉपर्टी अरे..रे..रे..उफ्फ्फ!! इस ज़ुबान का क्या करूँ... ऊपर वाले ने पता नहीं कौन सा lubricant लगा कर भेजा है, मुई बात-बात में फ़िसल जाती है....मेरा मतलब था वे तो 'सेलेब्रिटी' हैं...  अब मेरे मन में उनके प्रति सम्मान थोड़ा और बढ़ गया है....आख़िर वे भारतीय मूल का परचम पूरी दुनिया में जो फ़हरा रही हैं      

   मुझे वो ज़माने आज भी याद हैं जब विदेशी के नाम पर 'सलमा आग़ा' से काम चलाना पड़ता था और दिल के अरमां नालियों में बह जाते थे....उन दिनों बिग बॉस,  'बिग बॉस' तो क्या, 'बॉस' भी नहीं थे, लेकिन साहब जब से उनकी तरक्क़ी हुई है और वे बिग बॉस बने हैं, उन्होंने हम हिन्दुस्तानियों की दिमाग़ी सेहत का पूरा ख़याल रक्खा है और साबित कर दिया है कि वे बिग बॉस अपनी क़ाबिलियत के दम पर बने हैं न कि किसी 'सेटिंग' के आधार पर।
    
   बिग बॉस की खोजी प्रवृत्ति और सामान्य ज्ञान तो वाक़ई में बहुत ही उम्दा है...वे इतने बड़े पोर्न साम्राज्य से भारतीय मूल की 'पोर्न स्टार' हम सबके लिए ढूंढ लाये....उनकी 'दरियादिली' के तो कहने ही क्या?.....वे हम हिन्दुस्तानियों के नाच-गाना देखने के 'ऐतिहासिक' शौक़ को तो जानते ही हैं, साथ ही 'सनी लियोन' के 'अन्य' talent भी बाख़ूबी जानते हैं इसलिए उन्होंने 'सनी लियोन' को एक हफ़्ते तक सोने से पहले रोज़ नाचने का आदेश दिया है। कुछ दिन पहले मैंने भी उनके शानदार 'poll dance' का लुत्फ़ उठाया.....सच में बड़ा मज़ा आया, एकदम 'ज़िल्ले इलाही' टाइप की फीलिंग आई....

   ऐसा नहीं है कि बिग बॉस पहली बार ख़ूबसूरत विदेशी मेहमान हमारे लिए लेकर आये हैं..वे पहले भी ऐसा करके हमें उपकृत कर चुके हैं। सीज़न-3 में 'क्लॉडिया' को तथा सीज़न-4  में 'पामेला एंडरसन' को हमसे रू-ब-रू करा चुके हैं साथ ही पिछले सीज़न में पड़ोसी मुल्क़ की एक और शख्शियत, 'शौक़ीन' क्रिकेट खिलाड़ी, मो.आसिफ़ की परम सखी 'वीना मलिक' को हमारे समक्ष लेकर आये थे।
                           
  क्लॉडिया, सनी लियोन के मुक़ाबले इतनी 'हुनरमंद' नहीं थीं.... और असली शो- 'ज़ोर का झटका' में थोड़ी-बहुत उछल-कूद करके 'फुस्स' हो गईं.... और पामेला, हुनरमंद तो हैं लेकिन अब 'बुज़ुर्ग' हो चली हैं.... एक कमी और थी कि उनके साथ 'भारतीय मूल' जैसा 'अपनत्व' का एहसास नहीं था..... रही बात वीना मलिक की तो उन्होंने थोड़ी बहुत उम्मीदें जगाई थीं लेकिन बाद में वे क्रिकेट विशेषज्ञ बनकर सिर्फ़ यही दर्शा सकीं कि मो.आसिफ़ उन्हें केवल क्रिकेट की बारीकियाँ ही सिखा पाए.... क्रिकेट विशेषज्ञ के रूप में जब हमारे पास मंदिरा बेदी जैसी शुद्ध भारतीय शख्शियत है तो हमारे लिए उनकी कोई आवश्यकता नहीं रह गई।

   अब सनी लियोन के नाचने के हुनर को देखकर एक नई चिंता मुझे खाए जा रही है कि भारतीय मूल के चक्कर में राखी सावंत जैसी शत प्रतिशत शुद्ध भारतीय नर्तकियों का क्या होगाजैसा कि सनी लियोन ने स्वयं बताया कि वे बहुत अच्छी 'human being' हैं इसलिए उम्मीद करता हूँ कि वे किसी हिन्दुस्तानी के रोज़गार पर आघात नहीं करेंगी, फ़िर भी हम सबको उनसे बहुत उम्मीदें हैं।
   कुछ भी हो, हम हिन्दुस्तानियों  को एक नए profession से रू-ब-रू कराने, हम सबका सामान्य ज्ञान update कराने और अंत में उस 'poll dance' के लिए मैं बिग बॉस का तहेदिल से शुक्रिया अदा करता हूँ....बिग बॉस की जय हो!!!


शनिवार, 19 नवंबर 2011

टूटते हैं पत्ते पुराने



पंछी आते हैं साख पर, बैठते हैं, उड़ जाते हैं
टूटते हैं पत्ते पुराने, नए सिलसिले जुड़ जाते हैं...

ख़ुदगर्ज़ी की बिसात पर अपने हार जाते हैं
कुत्ते-बिल्ली फ़क़त घर-द्वार, कार, प्यार पाते हैं 
फ़ैलते हैं घर-बार,परिवार,यार पर दिल सिकुड़ जाते हैं...
टूटते हैं पत्ते पुराने, नए सिलसिले जुड़ जाते हैं...

लाशों के ढेर पर, कुर्सी सत्ता की टिक जाती है
चन्द सिक्कों की ख़ातिर, आत्मा बिक जाती है
तामीर होती है इमारत कोई, कई झोपड़े उजड़ जाते हैं...
टूटते हैं पत्ते पुराने, नए सिलसिले जुड़ जाते हैं...

पंछी कुछ क़ैद में, कुछ के पर क़तर दिए जाते हैं
खिलते हैं गुल कहीं तो कुछ खिल ही कहाँ पाते हैं
शूल सवालों के ऐसे अक्सर, मेरे दिल में गड़ जाते हैं...
टूटते हैं पत्ते पुराने, नए सिलसिले जुड़ जाते हैं...

मुहौब्बत के सोज़-ओ-सराब में लोग जिए जाते हैं
जाने क्यूँ नफ़रतों के सबक़ हर क़दम पे दिए जाते हैं
चलना चाहते थे हम भी सीधा मगर कमबख्त रास्ते मुड़ जाते हैं  
टूटते हैं पत्ते पुराने, नए सिलसिले जुड़ जाते हैं...

सोमवार, 14 नवंबर 2011

आधुनिकता


   आज़ादी के साठ वर्ष से अधिक हो रहे हैं, बहुत कुछ बदल गया है, कंप्यूटर का युग है, विकास का दौर है, पुरानी चीज़ें मान्यताएं बदल रही हैं या यूँ कहें बदल गई हैं। हर क्षेत्र में प्रगति हुई है,क्या सच में प्रगति हुई है या हमने कुछ खोया भी है

   नैतिक मान्यताएं,संस्कृति संक्रमण के दौर से गुज़र रही है। बैलों के गले के घुंघरू उदास हैं। बैलगाड़ी पर बैठी नवोढ़ा और परिजनों के विदाई गीत ख़ामोश हैं। काग़ज़ का टुकड़ा किसी की भावनाओं को दस्तावेज़ बनने को तरस रहा है। बोली की मिठास डायबिटीज़ की गोली की तरह फ़र्ज़ी हो चली है। देशी तन-मन पर विदेशी मुलम्मा चढ़ रहा है। बाटी को बर्गर चट कर  रहा है, राब-डाब को कोल्ड ड्रिंक पिए जा रही है,जामुन को स्ट्राबेरी चिढ़ा रही है, पुदीने की चटनी सोया-सॉस से संघर्ष कर रही है।
नीम की आखें अपनी डालों पर झूलों की माला पड़ने का इंतज़ार करते-करते पथरा गई हैं, मिट्टी बच्चों का खिलौना बनने को बेताब हैलकड़ी लट्टू बनने को अधीर है।

   हलषष्ठी को वैलेन्टाइन से ख़तरा पैदा हो गया है। नानी की कहानी अब क़िस्सा बन चुकी है। कच्ची मड़ैया पक्की हो रही है और लोगों के मन भी पक्की दीवारों की तरह कठोर हो रहे हैंदुनिया फैल रही है हृदय सिकुड़ रहे हैं...

   पनघट की डगर अभी भी कठिन है पर पनघट हैं कहाँ? कुओं के मेंढक तालाबों से होते हुए भूमि में पनाह तलाश रहे हैं.

   ट्रैक्टर की घरघराहट में रहट की आवाज़ ग़ायब हो गई है। सेंठे की क़लम, बाल-पेन से हार गई है, उस्तरे को सेफ्टी रेज़र ने ज़मीदोज़ कर दिया है। डियो (deodourant) की फुहार में इत्र की ख़ुश्बू उड़ गई है। लैला-मंजनू को रोमियो जूलियट ने मंच से धकिया दिया है। क़व्वाली की सरगम को रैप ने ग़मगीन कर दिया है।
   
   बच्चे शाला में नहीं हैं..... पतंग की डोर के छोर पर नहीं हैं.... बकरियों के पीछे भी नहीं हैंबच्चे कहाँ हैं? शायद बच्चे अब बूढ़े पैदा हो रहे हैं। जवान होते छोकरों की अलमारी के गुप्त कोने में छिपा गुप्त साहित्य नदारद है। बच्चे, बच्चों की तरह क्यों नहीं बड़े हो रहे हैंया हम उन्हें बच्चों की तरह बढ़ने नहीं दे रहे हैं?
   
   हम कहाँ जा रहे हैंहम क्या कर रहे हैंहमारा असलीपन क्यों विलुप्त होता जा रहा है? क्यों हम वैसे ही नहीं जी लेते जैसे कि हम शुरू से हैंहमारी मिट्टी की सोंधी ख़ुश्बू क्यों ग़ुम होती जा रही है?
   
   आप मुझे आधुनिकता का विरोधी समझने की भूल कदापि न करें। 

आधुनिकता क्या हैआधुनिकता के मायने क्या हैं?

   क्या अपनी निजता को बिसारना आधुनिकता हैक्या उन जड़ों को काटना आधुनिकता है जिन्होंने हमें पोस कर यहाँ तक पहुँचाया हैक्यों हम दूसरों को अपने से बेहतर समझते हैं? दूसरे हमारी तरह क्यों नहीं हो जाते, क्या हम इतने बुरे हैं? यदि हम इतने ही बुरे थे तो बाहर के लोग सदियों से हमारे यहाँ क्यों आते रहे?
   क्या किसी चीज़ का अँधा अनुसरण आधुनिकता है? क्यों हम पराये परिवेश की परदेशी परिभाषा को सहर्ष आत्मसात करने की बजाय आधुनिकता की अपनी परिभाषा नहीं गढ़ लेते जो हमारे परिवेश के अनुकूल हो... इसलिए समलैंगिकता, live in relationship , और तन को छिपाने-दिखाने में आधुनिकता की परिभाषाएं मत तलाशिये…

   ये ठीक बात है कि विकास के लिए आधुनिकता आवश्यक है किन्तु यह सोचना भी आवश्यक है कि  हम उसकी क्या क़ीमत चुका रहे हैं।
   
   मेरे विचार से आधुनिकता के लिए दो चीज़ें आवश्यक हैं- खोज और आविष्कार... किन्तु विडम्बना यह है कि आविष्कार तो नित नए हो रहे हैं किन्तु खोज की गति बहुत सुस्त है या लगभग न के बराबर है, अब सोचने वाली बात है कि क्या हमने सब कुछ खोज लिया है और खोजने को कुछ भी बाक़ी नहीं रह गया है...?  
   
   यहाँ खोज को सिर्फ़ वैज्ञानिक खोज से जोड़कर मत देखिये, आधुनिकता के लिए नए विचारों का आविर्भाव बहुत आवश्यक है और ये विचार ऐसे हों जो समाज के आत्मिक और भौतिक स्तर को सकारात्मक गति दे सकें... अतः आम जनमानस के विचारों का 'अद्यतन' होना ज़रूरी है लेकिन यह परिवर्तन अपने देश के परिवेशसंस्कृतिविरासत और नैतिक मान्यताओं के दृष्टिगत और धरोहरों को संजो कर रखते हुए हो तो परिणाम और भी आकर्षक और सुखद हो सकते हैं। 
   ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी है कि विचारों का यह परिवर्तन सिर्फ़ कुछेक लोगों के स्तर पर न होकर समाज के अधिकाँश तबकों में प्रभावी हो तभी आधुनिकता सही मायनों में आधुनिकता होगी....

   अब आप सोचिये क्या हम वाकई में आधुनिक हैं? मैं समझता हूँ कि हम वास्तव में तब आधुनिक  होंगे जब समाज में ज़ात-पात की दीवारें नहीं रहेंगी, सामाजिक बराबरी का दर्ज़ा सिर्फ़ क़ानून की किताबों में न होकर हक़ीक़त के धरातल पर होगा...  जब कन्यायें गर्भ में सिर्फ़ अपने लिंग के कारण नहीं मारी जाएँगी,  हम किसी दूसरे व्यक्ति से सिर्फ़ इसलिए नहीं द्वेष रखेंगे क्यों कि उसका इबादत का तरीक़ा हमसे अलग है अर्थात दूसरे के धर्म का सम्मान और प्यार  करेंगे, बूढ़े अभिभावक वृद्धाश्रमों में न रहकर अपने परिवार के साथ ससम्मानहंसी-ख़ुशी रहेंगे, बेटियां दहेज़ के कारण नहीं मारी जाएँगी कुल मिला कर हम समाज में ज़ात-पात,धर्म,वर्ग,वर्ण,क्षेत्र की सीमाओं से ऊपर उठ कर सिर्फ़ इंसान बनकर भाई-चारे के साथ रहेंगे, समाज का प्रत्येक तबका शिक्षित होगा और जब अख़बारों में आदमी को घोड़ा बनाने के विज्ञापन छपेंगे तो कोई उस पर यक़ीन नहीं करेगा......

शनिवार, 5 नवंबर 2011

'आम' से 'ख़ास' की ओर...


                                

   यदि आप समाज की रेस में ख़ुद को पिछड़ा महसूस करते हैं और अपने 'स्टेटस' को लेकर हीन भावना से ग्रस्त हैं तो आज मैं आपको 'आम' से 'ख़ास' या 'हाई प्रोफाइल' बनने का फ़ार्मूला सुझाता हूँ.... 
  
   सबसे पहले गहन रिसर्च करके एक ऐसे 'बाबा' की खोज करिए जिसके दो-चार सौ एकड़ में फैले 'सर्वसुविधा-संपन्न' आश्रम होंउसके दरबार में तथाकथित 'एलीट क्लास' सलामियाँ ठोंकता होजिसके दर्शन भी एक आम आदमी के लिए आसानी से सुलभ न होंजिसने हम हिन्दुस्तानियों के साथ-साथ गोरों को भी ज्ञान देकर सुखी बनाने का ठेका ले रक्खा हो अर्थात् जिसका ज्ञान बांटने का बढ़िया विश्वस्तरीय नेटवर्क होजो लम्बी-लम्बी हवाई यात्रायें करता होजो '24 X 7' भौतिकता का उपभोग कर भौतिकता से दूर रहने की धुन सुनाता हो.....

 कुल मिलकर एक ऐसा बाबा खोद कर निकालिए जिसके बारे में आपका आस-पड़ोस ज़्यादा न जानता हो, न ही उसके चेले आपके गिर्द हों यदि आप ऐसा नहीं कर सकेंगे तो फ़िर 'ख़ास' बनने में दिक्कतें आएँगी....ऐसा बाबा ढूँढने के बाद बड़े श्रद्धा, समर्पण और विश्वास के साथ तनमन, "धन" से उसके चेले बन जाइये या कम से कम पूरी दृढ़ता के साथ समाज में ऐसा प्रदर्शित कीजिये और दर्शाइए कि मेरा बाबा सबसे ज़्यादा 'ज़ोरदार' है और जो माल मेरे पास है वो किसी के पास नहीं है अर्थात् मेरा माल 'यूनीक' है, ऐसा करने के लिए अपने घर या किसी नियत स्थल पर साप्ताहिक कैंप लगाकर सत्संग कर अपने 'ख़ास' होने का प्रदर्शन कीजियेसत्संग में प्रोजेक्टर स्क्रीन व अन्य आधुनिक तकनीकों का प्रयोग कर 'गुरु जी' द्वारा प्रदत्त 'अद्वितीय ज्ञान' की गंगा बहाइये और लोगों को दिखा दीजिये कि आप न केवल धार्मिक हैं बल्कि 'हाई-टेक' भी हैं

   आपके इस 'बढ़े हुए स्टेटस' को लोग भूल न जाएँ इसके लिए नियमित अंतराल पर 'दुर्लभ ज्ञान-दर्शन' से सराबोर पर्चे, पैम्फ्लेट और कैलेंडर बाँटिये साथ ही मोबाइल-फोन मैसेज करके उनके दैनिक जीवन में ख़लल डालिएदेश के विभिन्न स्थानों पर 'भव्य पाँच सितारा' पांडालों में होने वाले गुरु जी के 'रंगारंग' प्रवचन कार्यक्रमों में शामिल होकर 'दिव्य-ज्ञान' लाभ प्राप्त करने के लिए यथासंभव लम्बी यात्रायें करिए और लगे-हाथ देशाटन का भी आनंद उठाइए और वहाँ से लौट कर वहाँ बताई गई ज्ञान की बातों के साथ-साथ प्रमुख रूप से वहां जाने वाले अपने गुरु भाइयों(या बहनों) की आलीशान गाड़ियों के मॉडल तथा उनके शरीर पर लदे सोने का वज़न बताइए।
  
   अपने घर की अटारी पर 'यूनीक बाबा' का 'यूनीक' झंडा लगाकर अपने ख़ास होने का ऐलान कर अपने 'स्टेटस' का प्रचार कीजिये.....और हाँ! आपके गुरु जी के परिजनों ने कभी उनका जन्मदिवस मनाया हो अथवा न मनाया हो आप ज़रूर पूरे मोहल्ले को आमंत्रित कर उनका जन्मदिन धूमधाम से मनाइए....


       उपरोक्त सुझावों पर अमल करें, इंशाअल्लाह आप ज़रूर 'आम' से 'ख़ास' बन जायेंगे और समाज में अपने 'स्टेटस' की हीन भावना से उबर पायेंगे साथ ही बोनस के रूप में 'धार्मिक', 'संस्कारी', आध्यात्मिकऔर 'बुद्धिजीवीहोने का तमगा भी हासिल करेंगे। इस प्रकार आप सुखी होने की आम परिभाषा के अनुरूप 'सुखी' अनुभव करेंगे और समाज में अपनी बदली हुई स्थिति पर आत्ममुग्ध हो उठेंगे....सावधानी  के तौर पर उन ज्ञान की बातों को भूल कर भी हरगिज़ आत्मसात्  न करें जो आपके गुरूजी ने (भले ही अपनी दुकान चमकाने के लिए) कही हों....यदि आप ऐसा करेंगे तो अपने मूल उद्देश्य से भटक जायेंगे और 'स्टेटस'  'पोजीशन' की बातें बेमानी हो जाएँगी....
       
   ऐसा करने में घर के कुछ ज़ेवर बिक जाएँ या घर की कुछ आवश्यक आवश्यकताओं में कटौती हो जाए तो भी यह कोई बुरा सौदा नहीं है.....अब जाइये और इस 'धर्म प्रधान', 'अधर्मी समाज' में अपनी नई पोजीशन का लुत्फ़ उठाइए...

       वैसे मैं भी आज-कल दिमाग़ी अशांति के दौर से गुज़र रहा हूँ और कोई गुरु करना चाहता हूँ, अगर आपकी नज़र में कोई सस्ता-मद्दा, टिकाऊ, 'बाबा' हो तो ज़रूर बताइयेगाध्यान रहे मेरी affordability ज़रा कम हैग़रीब स्कूल मास्टर जो ठहरा और मेरी श्रीमती जी के पास जो भी दो-एक ज़ेवर हैं, वे उन्हें मेरी दिमाग़ी शांति से ज़्यादा प्रिय हैं..

बुधवार, 2 नवंबर 2011

स्मृति शेष.....

धड़-धड़ धड़ाधड़,धड़-धड़ धड़ाधड़...
ज़िन्दगी बस यूँ ही चलती चली जाती है
किसी रेलगाड़ी की तरह
स्टेशन आते हैं...
ज़िन्दगी कुछ देर ठहरती है,
फ़िर आगे बढ़ जाती है....
कुछ स्टेशन, कुछ यूँ छूट जाते हैं कि
दोबारा नहीं मिलते.....
और रह जाते हैं कुछ बेज़ुबान जवाब
बिना किसी सवाल के...
किसी सिरकटी लाश की तरह...
जवाब हैं लेकिन सवाल नदारद हैं.
कोई नहीं पूछता.......
इतनी रात तक कहाँ थे?
तुमने शराब पी रक्खी है क्या?
बाहर का खाना क्यों खाते हो?
इतना ख़र्च क्यों करते हो.....आदि-आदि...
बीमारियाँ तो अब भी हैं...लेकिन 
उन बीमारियों के अवैज्ञानिक कारण और निदान
कोई नहीं बताता...
अचानक बुख़ार आ गया...
ज़रूर कोई हवा का चक्कर है.
जेब में प्याज़ रखकर निकलो...
लू नहीं लगेगी.
अब तो मुझे भी ज्ञात है...
ये उनकी अज्ञानता नहीं,
उनकी ममता की महानता थी.
अब तो सिर्फ़ थका हुआ सिर है लेकिन...
टिकाने को वो कन्धा नहीं है.
आँखों में आंसू तो आते हैं लेकिन...
पोंछने को माँ का आँचल नहीं है.
और वे....वे तो चिर युवा होकर रह गए.
अब वे कभी बूढ़े नहीं होंगे...
हमेशा जवां ही रहेंगे..... ख़ूबसूरत..
मेरे ख़्वाबों में भी जवां ही रहेंगे.
वक़्त ने उनको बूढ़ा न होने दिया...
न जाने कितनी बातें रह गईं...
न जाने कितने ख़्वाब अधूरे रह गए...
न जाने कितने ख़्वाब उगे ही नहीं..
न जाने कितने सवाल अबूझे रह गए..
न जाने......
न जाने......
न जाने......
अब तो मैं यही सोचता हूँ कि...
शायद मैं ही स्टेशन था...निश्चल
और लोग गुज़र गए रेलगाड़ी की तरह....
धड़-धड़ धड़ाधड़,धड़-धड़ धड़ाधड़...

( मेरे पूज्य माता-पिता के श्री चरणों में समर्पित जो अब सिर्फ़ स्मृतियों में हैं )