बुधवार, 2 नवंबर 2011

स्मृति शेष.....

धड़-धड़ धड़ाधड़,धड़-धड़ धड़ाधड़...
ज़िन्दगी बस यूँ ही चलती चली जाती है
किसी रेलगाड़ी की तरह
स्टेशन आते हैं...
ज़िन्दगी कुछ देर ठहरती है,
फ़िर आगे बढ़ जाती है....
कुछ स्टेशन, कुछ यूँ छूट जाते हैं कि
दोबारा नहीं मिलते.....
और रह जाते हैं कुछ बेज़ुबान जवाब
बिना किसी सवाल के...
किसी सिरकटी लाश की तरह...
जवाब हैं लेकिन सवाल नदारद हैं.
कोई नहीं पूछता.......
इतनी रात तक कहाँ थे?
तुमने शराब पी रक्खी है क्या?
बाहर का खाना क्यों खाते हो?
इतना ख़र्च क्यों करते हो.....आदि-आदि...
बीमारियाँ तो अब भी हैं...लेकिन 
उन बीमारियों के अवैज्ञानिक कारण और निदान
कोई नहीं बताता...
अचानक बुख़ार आ गया...
ज़रूर कोई हवा का चक्कर है.
जेब में प्याज़ रखकर निकलो...
लू नहीं लगेगी.
अब तो मुझे भी ज्ञात है...
ये उनकी अज्ञानता नहीं,
उनकी ममता की महानता थी.
अब तो सिर्फ़ थका हुआ सिर है लेकिन...
टिकाने को वो कन्धा नहीं है.
आँखों में आंसू तो आते हैं लेकिन...
पोंछने को माँ का आँचल नहीं है.
और वे....वे तो चिर युवा होकर रह गए.
अब वे कभी बूढ़े नहीं होंगे...
हमेशा जवां ही रहेंगे..... ख़ूबसूरत..
मेरे ख़्वाबों में भी जवां ही रहेंगे.
वक़्त ने उनको बूढ़ा न होने दिया...
न जाने कितनी बातें रह गईं...
न जाने कितने ख़्वाब अधूरे रह गए...
न जाने कितने ख़्वाब उगे ही नहीं..
न जाने कितने सवाल अबूझे रह गए..
न जाने......
न जाने......
न जाने......
अब तो मैं यही सोचता हूँ कि...
शायद मैं ही स्टेशन था...निश्चल
और लोग गुज़र गए रेलगाड़ी की तरह....
धड़-धड़ धड़ाधड़,धड़-धड़ धड़ाधड़...

( मेरे पूज्य माता-पिता के श्री चरणों में समर्पित जो अब सिर्फ़ स्मृतियों में हैं )

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