रविवार, 28 अक्तूबर 2012

फण्डा बदल गया




     बहुत पुरानी बात नहीं है यही कोई 22-25 वर्ष पहले की बात है उस वक़्त हम बचपन के मज़े ले रहे थे, तब दस्सी-पंजी चलती थी। दस्सी-पंजी यानी दस पैसे और पाँच पैसे का सिक्का.... उन दिनों 5 पैसे का संतरे वाला एक कम्पट(स्वीट कैंडी) मिलता था... तब विदेशी टॉफीकैंडीचाकलेट का इतना चलन नहीं था या हो सकता है मेरी पहुँच में न रहा हो इसलिए मुझे ऐसा लगता है बहरहाल निहायत सामान्य बच्चा होने के कारण वो 5 पैसे वाला कम्पट ही बचपन का पर्याप्त मज़ा दे जाता था। इस लिहाज़ से 5 पैसे का वो सिक्का मेरे लिए बड़ा महत्वपूर्ण था और जिस दिन जेब में अठन्नी हो उस दिन तो खुद को शहंशाह समझता था। उन दिनों मुझे वे रिश्तेदार बड़े प्यारे लगते थे जो घर से विदा लेते वक़्त मुझे अठन्नी दिया करते थे.... जैसा लोग कहते हैं कि सात सुख होते हैं.... मुझे उन दिनों भौतिक सुखो में ख़ास तौर से स्वादिष्ट चीज़ें खाने में ही सातों सुख मिल जाया करते थे।
     मेरी नानी गर्मियों की रात में खुले आसमान के नीचे बड़े प्यार से अपने पास लिटाती थीं। ज़्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हैं लेकिन बहुत अच्छी-अच्छी बातें बताया करती थीं। मुझे याद है कि एक बार उन्होंने बताया था कि ''दूसरे के सोने को भी मिट्टी समझना चाहिए और चोरी चाहे पांच पैसे की हो या पांच लाख की चोरी...चोरी होती है और दोनों ही स्थितियों में बराबर पाप लगता है''..... भईया बचपन की बुद्धि, कोमल मन....छप गईं ये सब बातें....मैंने उनकी बातों को अक्षरशः आत्मसात कर लिया और दूसरे के सोने को मिट्टी समझने लगा....लेकिन इधर परिदृश्य में कुछ बदलाव आ गया वो पुराने नानी वाले फंडे थोड़ा संशोधित हो गए हैं और अब मेरे पास अपने नाती पोतों को सुनाने के लिए संशोधित फंडे हैं ...हुआ कुछ यूँ कि पांच पैसे की चोरी तो आज भी चोरी ही है लेकिन पाँच करोड़..पचास करोड़...पाँच हज़ार करोड़ की चोरी माननीय होने का लाइसेंस है.....''जितना बड़ा चोर उतना ही माननीय!!!''
     .......और अब मैं ये सोचता हूँ कि जिस दिन मैंने नानी की बात गाँठ बाँधी उसी दिन मेरे माननीय होने की संभावनाएं जाती रहीं....

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

मंज़र

तेरे दामन की जो ये दिलकश ख़ुश्बू है 
कितने ही फूलों की शहादत की दास्ताँ है...

उनके ज़ुल्मों से पामाल हो गए हम से कितने 
कैसे कह दूं जो उनका है वही मेरा पासबाँ है...

ख़ामोशी घुली है जो हवाओं में हर सिम्त
अमन का नहीं ये ज़िन्दा मुर्दों का कारवां है ...

ज़मी-आसमां, दस्त-ओ-पाख़ूँ, ख़ुदा एक हैं 
जाने क्यों सिख, हिन्दू तो कोई मुसलमां है...

हर शख़्श राज़ी है यहाँ क़तील बनकर 
दिल-ए-नादाँ तू फ़िर क्यूँ इतना परेशां है...





बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

जैराम कक्कू........






       हमरे गाँव मा याकै बिसम्भर कक्कू रहत है, खेती किसानी करत रहैं मुला अब बुढ़ापे मा कुछौ नहीं सधत, घरैतिन के मरै के बाद नसा-पत्तिहू कम कई दिहिन है, मुला मुफत की मिलि जाए तौ अबहूँ हाथ मारि लेत हैं। पार साल परधानी के अलेक्सन मा मुफत की पी कै बड़ी दुन्द काटेन। फिरौ हम सब उनकी बड़ी इज्जत करित है, गांव मा पुरिखा-पुरनिहन मा अब बचै को है? बिसंभर कक्कू वइसे आदमी फिट हैं, गाँव मा कहूं बिहाव- बरात होय, कक्कू खाना-पीना, हलवाइन का इन्तजाम बड़े नीके द्याखत हैं औ जो कोई की गइया-भइंसी न लगती होंय तौ गाड़ा-जन्तुर, दवाइव देत हैं। 

इधर छ-सात दिन ते देखि रहे हन कक्कू का भगवान जाने का होई गा है, कोई उनते 'जैराम कक्कू' कहि भर दे, सूधै गरियावै लागत हैं। हम सोचेन, कक्कू फिर ते नसा करै लाग का? परसादी बताएन- नसा-वसा कुछौ नहीं, बुढ़ऊ सिर्रिया गे हैं, औधेस फिर लाठी भांजि दिहिन होइहैं। हम सोचेन, अइसै कुछ भा होई।
-------------------------------------------------------------------

''''
कनवा में शोभे बाली, जूड़ा पे लगा के जाली
चाल चलेली मतवाली, बगल वाली जान मारेली''''

हाँ...... यहै गाना रहै, आज औतार दद्दू की चक्की ते गोहूँ पिसाय के लौटित रहै कि हमका यहै फूहर गाना सुनाई परा, हम हुवैं सैकिल मा बिरिक मार दीन। हम सोचतै रहन कि औधेस हियैं होइहैं, तबहीं पाछे ते आवाज आई-" दद्दा पाँय लागी", हम कहेन- "खोस रहौ''। ई रहैं औधेस, बिसंभर कक्कू के सुपुत्तर।

जहाँ उम्मीद रहै, औधेस हुवैं मिले, पुरानी पकरिया तरे चउतरा पर। आजकल हियाँ चउतरा पर रोज तास की फड़ लागति है, गाँव के सब जवान-जट्ट लउंडे दिन्न भर तास ख्यालत हैं औ मोबैल पर यहे तना के फूहर-फूहर गाना सुनत हैं। करत-धरत कुछौ नहीं औ खवाब द्याखत हैं- 'सरकार चरन छुई के थरिया मा परसि कै सरकारी नऊकरी दई जाय'।

हम कहेन- कै औधेस, हम तुमका समझाए रहन, आज फिर हियैं?

बोले- अरे दद्दा, जादा नहीं खेलित, बस दस-बीस रूपइया, एत्तेहे मा दिन्न भर की मउज होई जात है।


हम कहेन- अच्छा यू बताओ कक्कू का फिर ते ठोंकि-पीट दीन्हेव का? 

- अरे नहीं दद्दा, अम्मा के मरै का साल भर होई रहा है, दुई- एक बार की छोड़ि देव तौ हम उनपर कबहूँ हाथ नहीं उठावा।

- तौ कक्कू का होई का गा है? आजकल उनक्यार दिमाग कुछ ठीक नहीं लागत। 


- का बताई दद्दा, अम्मा के मरै के बाद हमरे बियाहे खातिर बड़े परेसान रहैं, दुई-याक जगा बातौ चली मुला मामला सब भिन्डी होई गा।


- अच्छा काहे, अइस का होई गा? 

- दद्दा, तेवारीपुर मा अजुध्यापरसाद के हुवां सब बात फैनल होई गै रहै, मुला तबहें याक घटना घटि गै, उनकी बिटेवा बिहाव करै ते मना कई दीन्हेस।


अब हमका रसु आवै लाग, पूछेन- काहे अइस काहे कीन्हेस? 

- अरे दद्दा, आजकल यो टीबी सब बिगारे है, वहिमा कहूँ सुनि लीन्हेस..... अरे कउनौ मंतरी हैं,...... हाँ!, जैराम रमेस, उई कहत रहैं कि जउने घर मा टट्टीघर न होय हुवां बिटेवा बिहाव न करैं, बस यहै बात वा पकर लीन्हेस। बियाहे ते साफ मना कइ दीन्हेस। ई बात से बप्पा का बड़ा धक्का लाग। अब दद्दा आप तौ सब जनतै हौ। हम सब जने खुलेहे मा दिसा-मैदान जाइत है।

हम कहेन- पर सौचालय तौ परधान बनवायेन रहै ? 


- दद्दा, अब एत्ता अनजान न बनौ, आपौ मऊज लई रहे हौ? 

मन के भाव छिपावत भये हम कहेन, अरे नहीं औधेस, अइस बात नहीं है। 

- तौ का आप रामचन्दर परधान के खेल नहीं जानत हौ? उई सौचालय कइसे बने, वहिमा का-का खेल भा, आप नहीं जनतेव? बस कउनौ तना याक ढाँचा खड़ा कई दीन गा रहै, औ राम कसम है जो एकौ दिन परयोग करै लायक रहा होय औ बप्पा का, का कही? बस एक पउवा दइ देव, जहाँ कहौ दस्कत करवा लेव। ऊ सौचालय तौ अब जलउनी लकड़ी औ कंडौ धरै लायक नहीं रहि गा।

- मुला कउनौ कक्कू ते दुआ-सलाम करत है तौ उई गरियावै काहे लागत हैं? 


औधेस बोले- अरे न पूछौ दद्दा, उई मंतरी है न जैराम रमेस उनकी वजह ते पहिले हमार बिहाव कंडम भा, औ अब एक अउर फरमान सुनै मा आवा है कि जो कोऊ खुले मा दिसा-मैदान जाई वहिका जेल जायेक परी। बस, बप्पा जब ते या बात सुनेन है, उनका सदमा होई गा है, बिचारे रात-बिरात झाड़ा फिरै जात हैं औ कोई न कोई का साथै जरूर लई जात हैं कि कहूँ पुलिस वाले न पकरि लई जाएं। उनके दिमाग का, का कही जो उनते कउनौ ''जैराम''; कहि भर दे तौ सूधै गरियावत हैं।


हम कहेन चिंता न करौ सबते पहिले तौ करजा-पात लई कै टट्टीघर बनवाओ भगवान चाही तौ सब ठीक होई जाई औ तुम्हार बिहावौ होई जाई। 

अब औधेस बोले- तौ दद्दा तुमहीं हमार कल्यान कई देव, दस-बीस हजार करजा दई देव।

शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

बाज़ारवाद और स्त्री













''हम हैं मता-ए- कूचा औ बाज़ार की तरह, 
 उठती है हर निग़ाह  ख़रीदार  की तरह!"
 ( मता = सामानवस्तुचीज़माल)
    
     पाकिस्तान में कथित तौर पर एक सांसद की अध्यक्षता में आयोजित एक कबायली परिषद ने दो कबीलों के बीच विवाद सुलझाने के लिए मुआवजे के तौर पर 13 नाबालिग लड़कियां देने का अजब फैसला सुनाया।
     

     कबायली परिषद या जिरगा की अध्यक्षता सांसद मीर तारिक मसूरी ने सितंबर बलूचिस्तान के डेरा बुगती जिले में की। इस जिरगा में विवादास्पद वानी परंपरा के तहत दो कबायली समूहों के बीच विवाद सुलझाने के लिए साल से 16 साल की 13 लड़कियों को देने का फैसला किया गया।
     

     एक ज़माना था जब कमज़ोर शासक अपने से शक्तिशाली शासक के हमले से बचने के लिए या उसे ख़ुश करने के लिए लड़कियां/स्त्रियाँ भेंट स्वरुप दिया करते थे जो शक्तिशाली शासक के हरम की शोभा बढ़ाती थीं। कुछ शासक अपने राज्य की सुरक्षा और मैत्री के उद्देश्य से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि प्राचीन काल से ही स्त्रियों का महज़ वस्तु की तरह प्रयोग होता था। आज 21वीं सदी में भी परिवेश कमोबेश वैसा ही है। आज आधुनिक युग मेंविकास के इस दौर में स्त्री को प्रयोग करने के तौर- तरीक़ों में भी विकास कर लिया गया है, मूल तत्व वही है- ''''वस्तु के रूप में प्रयोग''''     

     आज बाज़ारवाद के दौर में जायज़- नाजायज़ कोई भी हथकंडा अपनाकर उत्पाद बेचना एक तरह से सामाजिक स्वीकार्यता प्राप्त कर चुका है। एक ग़रीब सब्ज़ी बेचने वाला 10 रूपए किलो वाली बासी सब्ज़ी को ताज़ी कहकर बेचता है तो हम उससे झंझट करने को तैयार रहते है। वहीँ किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति/सेलेब्रिटी के उकसावे पर 10 रूपए की मामूली क्रीम ख़ुशी- ख़ुशी 100 रूपए में लाकर बदन पर घिसते हैं। सब्ज़ी वाले और उस प्रतिष्ठित व्यक्ति में फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि सब्ज़ी बेचने वाला झूठ बोलकर पैसा लेता है और वह महान शख्श पैसा लेकर झूठ बोलता है। सब्ज़ी वाले की आजीविका का प्रश्न है... लेकिन प्रतिष्ठित व्यक्ति की आजीविका का प्रश्न नहीं है इसलिए मैं उसे दोषी मानता हूँ.... लेकिन उसकी इस हिमाक़त को समाज की सहमति प्राप्त है... कोई इस बारे में नहीं सोचता....
     

     बाज़ारवाद के इस दौर में एक बदलाव और हुआ है... बाज़ार ने स्त्री की आकर्षक/सुन्दर छवि को उत्पाद बेचने के लिए एक ज़बरदस्त उपकरण/टूल के रूप में विकसित कर लिया है। इसी लिए पुरुषों के सेफ़्टी-रेज़र के विज्ञापन में महिला दिखाई जाती है। आप deodorant इसलिए लगाइए ताकि अनेक महिलायें कामुक ढंग से इठलाते हुए आपके शरीर में आकर बिंध जाएँ। आप पुरुषों की गोरेपन की क्रीम इसलिए लगाइए ताकि अनेकों ख़ूबसूरत जवान लड़कियां दीवानी होकर आपके पीछे भागने लगेंआप फलां बनियान पहनें तो लड़की आपसे जोंक की तरह चिपक जाएगी.... क्या बेहूदा मज़ाक़ है....???    
     मज़े की बात तो यह है कि इन सब बातों को समाज ने न सिर्फ़ स्वीकार कर लिया है बल्कि प्रभावित भी होता हैं.... और विरोध का कोई स्वर यहाँ तक कि महिलाओं की तरफ़ से भी नहीं सुनाई पड़ता, भले ही इन सब से महिलाओं की क्या छवि समाज में प्रोजेक्ट होती हो। मुझे नहीं लगता कि कोई भी महिला किसी व्यक्ति के शरीर की ख़ुशबू सूंघकर उससे बिंध जाए, किसी के गोरेपन को देखकर उसके पीछे दौड़ पड़े.....
     इस सब का एक पहलू यह भी है कि पुरुष की मानसिकता क्या है...क्या वह ऐसा ही कुछ चाहता है?... क्या उसके मन की इच्छाओं की क्षुधा-पूर्ति इन विज्ञापनों के ज़रिये होती है या यह विज्ञापन पुरुष मानसिकता के दर्पण हैं??.... क्या पुरुष इतने भोंदू हैं जो ऐसे अतिशयोक्तिपूर्ण विज्ञापनों से प्रभावित होते हैं?.... यदि ऐसा है तो यह सोचनीय है.... ""alarming condition"" है.... 

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

फ़िल्मी फ़लसफ़ा


       


 मित्रों आज़ादी के बाद हिंदी फ़िल्म उद्योग ने बड़ी तरक्क़ी की.... बच्चेबूढ़े और जवान भले ही 'यंग इंडियान पहनते रहे हों लेकिन हिंदी फ़िल्में बड़े चाव से देखते आये हैंफ़िल्में देखने के लिए लोगों ने न जाने कौन-कौन से सद्कर्म किये हैं और आज भी उन वीरतापूर्ण सद्कर्मों की गाथाएं सगर्व सुनाई जाती हैं....
     लोग इल्म-ओ-तालीम की क़ीमत पर फ़िल्में देखने का पराक्रम दिखाते रहे हैं... फ़िल्मी तरानों और हाव-भावों पर बुज़ुर्गों के नथुने हमेशा फड़कते रहे, हालाँकि अपनी उम्र पर वे भी फ़िल्मों के ज़बरदस्त शौक़ीन रहे। हर पीढ़ी का ये रोना रहा कि फ़िल्में तो हमारे ज़माने में बनती थीं अब तो कूड़ा-कचरा परोसा जा रहा है... फ़िर भी फ़िल्में बन रही हैं और ख़ूब बन रही हैं नतीजाफ़िल्में पैदा करने में भी हमारा मुल्क़ अव्वल बना हुआ है और फ़िल्मी अभिनेताओं को देवी-देवताओं सरीखा रुतबा हासिल है.....मुझे तो अपना बचपन याद आता है जब हिंदी फ़िल्में आसानी से सुलभ नहीं थीं उन दिनों चुनाव के बाद मतगणना का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार रहता था... अरे! चुनावी नतीजों के लिए नहीं उन फ़िल्मों के लिए जो मतगणना के दौरान दूरदर्शन पर दिखाई जाती थीं...
      कुल मिला कर कहने का तात्पर्य यह है कि सबकी तरह मुझे भी फ़िल्मे देखना बहुत पसंद था...... हिन्दुस्तान में फ़िल्मों की शुरुआत से लेकर आज तक की ढेरों फ़िल्में देखीं और अधिकाँश हिन्दी फ़िल्मों को देखकर मोटे तौर पर कुछ निष्कर्ष निकले हैं जो बिन्दुवार आपके समक्ष प्रस्तुत हैं....

#.
दुनिया में सर्वाधिक प्रेम विवाह हिन्दुस्तान में होते हैं.

#. 
जीवन का एकमात्र लक्ष्य विवाह है.

#. 
प्रेम(प्यार) का मतलब नायक का नायिका से प्रेम है जो उसे नायिका की सुन्दर देह में नज़र आता है.

#. 
नायक सर्वाधिक सुन्दर कन्या से ही प्रेम करते हैं.

#. 
नायिका सर्वाधिक सुन्दर होती है जबकि नायक की बहन अपेक्षाकृत कम सुन्दर होती है.

#. 
बदसूरत व्यक्ति नायक नहीं हो सकता है.

#. 
बदसूरत व्यक्ति दबाने/कुचले जाने के लिए होता है या फ़िर खलनायक होता है.

#. 
नायक बनने के लिए ख़ूबसूरत चेहरे के साथ बलिष्ठ शरीर की ज़रुरत होती है.

#. 
नायक होने के लिए व्यक्ति को हरफ़नमौला होना चाहिए जैसे उसे नर्तक/गवैया होने के साथ-साथ पराक्रमी योद्धा भी होना चाहिए.

#. 
न्याय पाने/करने का एकमात्र तरीक़ा मार-धाड़ है.

#. 
नायक/नायिका चाहे रेगिस्तान में रहते हों नाचने के लिए पहाड़ों पर जाते हैं कुछ तो सरहदें भी पार कर जाते हैं.

#. 
सिर्फ़ एक बार की सहमति/ग़लती/ज़बरदस्ती मातृत्व की ख़ुशख़बरी/दुखख़बरी बन सकती है.

#
किसी महिला/युवती को उल्टी आने का सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही मतलब है।

#. 
अधिकाँश भारतीय फ़िल्में वय के लिहाज़ से सब के साथ समानता का व्यवहार करती हैबालिग़-नाबालिग़ का कोई भेद नहीं और इस दृष्टिकोण से हमारी फ़िल्में यौन शिक्षा का उत्तम और प्रभावशाली माध्यम हैं.

#. 
जीवन में अधिकाँश समय बाज़ी खलनायकों के हाथ में रहती है जैसे 2.5 घंटे की फ़िल्म में 2 घंटे 15 मिनट खलनायक की मौज रहती है.

#.
भारत में दिल्लीपंजाबमहाराष्ट्र व उत्तर प्रदेश जैसे प्रदेश ही हैं और सिक्किमअरुणांचलमेघालयआसाममणिपुरनागालैंडत्रिपुरा जैसे प्रदेशों का कोई अस्तित्व नहीं है.

नोट- उपरोक्त निष्कर्ष अधिकाँश फ़िल्मों पर आधारित हैं इसमें सभी फ़िल्में शामिल नहीं हैं।

सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

नन्ही- मुन्नी घोटाली !!!


विकलांग कल्याण में 71 लाख का घोटाला

घोटालों के इस 'महायुग' में छोटी सी नन्ही-मुन्नी घोटाली !!!
(घोटाले की बोनसाई)
 

हुंह.... ये भी कोई बात हुई, हमें 'माननीयों' से ऐसी उम्मीद नहीं थी। ऐसे घोटाले तो 'छोटे-मोटे' घोटालेबाज़ों को शोभा देते हैं, नगर निगम का या विकास प्राधिकरण का 'क्वालीफाइड' अफ़सर हो, सरकारी अनुदान से चलने वाली किसी शैक्षणिक संस्था की प्रबन्ध समिति का 'प्रशिक्षित' प्रमुख हो या फिर बाढ़ राहत/ सूखा राहत आदि 
कार्यों का 'ज़िम्मेदार' कर्ता-धर्ता हो, किसी धार्मिक ट्रस्ट का 'धर्मपारायण' मठाधीश हो, किसी प्रवेश परीक्षा में जमा होने वाली रक़म का 'सक्षम पहरेदार' हो, नदी-नालों की साफ़-सफ़ाई कराने वाला 'साफ़ चाल-चलन' का कोई ओहदेदार हो, जंगलों में सरकारी अनुदान पर वृक्षारोपण कराने वाला कोई 'प्रकृति-प्रेमी' अफ़सर हो, ऊसर ज़मीन को उपजाऊ बनाने वाला कोई 'हरित-क्रांति का उपासक' हाक़िम हो या 'सीमित संसाधनों और सामर्थ्य' वाला कोई 'साधारण प्रशिक्षु खिलाड़ी' हो तो बात कुछ जँचती, हमें उनसे ऐसे प्रदर्शन की उम्मीद रहती है। 

एक बेहतरीन घोटालेबाज़ अगर दांत खोदकर थूक दे तो ऐसी 10-20 घोटाली ज़मीन पर लोटती मिलेंगी, एक उम्दा घोटालेबाज़ प्रशिक्षण अवधि(training period) में भी ऐसी घोटाली नहीं करता, अच्छे घोटालेबाज़ों के नौसिखिया चेले परीक्षा में इस तरह के प्रोजेक्ट/अधिन्यास(assignment) जमा करते हैं।

हम हिन्दुस्तानी लोग हैं और घोटालाप्रूफ हो चुके हैं और 60 सालों में बड़ी त्याग तपस्या से यह सिद्धि प्राप्त की है..... बड़े-बड़े क्रांतिकारी घोटालेबाज़ों ने बड़े परिश्रम, कौशल और अद्वितीय चातुर्य से हमें इस योग्य बनाया है.... हम उन महान घोटालेबाज़ों की समृद्ध परम्परा और उनके नाम पर प्रकार का बट्टा बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करेंगे.... घोटालों के इस स्वर्णयुग में इस तरह के घटिया प्रदर्शन पर हमें सख्त ऐतराज़ है, यह हमारी ग़रीबी का भी मज़ाक़ है..... बताओ! वैश्विक स्तर पर हम लोगों को क्या मुँह दिखायेंगे कि हिन्दुस्तान में घोटालेबाज़ों का स्तर इतना गिर गया है कि ऐसी घोटाली पैदा कर रहे हैं?

मेजर ध्यानचंद के मुल्क़ में हाकी की दयनीय दशा पर हम ख़ूब छाती कूटते हैं। इसी तरह मज़बूत घोटालों की समृद्ध परम्परा के इस देश में ऐसा सतही मुज़ाहिरा हमें नागवार गुज़रा है, हम जानते हैं हमारी बेंचस्ट्रेंथ बहुत दमदार है, एक से बढ़कर एक पराक्रमी 'खिलाड़ी' मौक़े के इंतज़ार में हैं.... और जब खिलाड़ी अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप 'खेल' न दिखा पाए तो यह बहुत ज़रूरी हो जाता है कि उसे टीम से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाये और नए जोशीले और मज़बूत कन्धों वाले 'हुनरमंद' खिलाड़ियों को मौक़ा दिया जाए।

                              ◘◘◘◘◘◘◘◘ ND ◘◘◘◘◘◘◘◘

शनिवार, 13 अक्तूबर 2012

मीडिया वाले लई डारेन....


   भईया......... यू दुई हजार बारा तौ नीके-नीके लगभग निपटिही गा, दुई-ढाई महिना बचे हैं, जो बरम बाबा केर किरपा बनी रही तौ यहौ निपटि जाई। मुला का बताई यू साल राम-राम कइके कइसे बीता है, यू हमहीं जानित है। अरे, पार साल ई मीडिया वाले बहुत डेरवा दीन्हेन, कउनौ बतायेस दुई हजार बारा मा या दुनिया खतम होई जाई, कउनौ बतायेस सूरज ते सूनामी आई, औ कोई बतायेस भगवान जाने कहाँ सेने उलका गिरी, जलजला आई औ सब नस्ट-भस्ट होई जाई.... दुई-चार महिना तक यू सब बताय-बताय के चैनल वाले हमार खोपsड़ी चाटि गे.... औ हम तौ ठहरेन सिर्री मनई, सोचेन जब ई पंचै, पढ़े-लिखे लोग बताय रहे हैं तौ ठीकै कहत होइहैं, कहूँ न कहूँ ते खोदि कै या जानकारी निकारेन होइहैं, कउनौ बेद-सास्त्र बांचेंन होइहैं...

   मुला याक बात हम तबहूँ स्वाचा रहै कि जब दुई हजार बारा मा दुनिया खतमै होई जाई तौ हम यू जानिहू के का करि लेबे,सब बरम बाबा की माया है...... ई लोग यू सब हमका काहे बता रहे हैं, फिर स्वाचा जब बताहे रहे हैं तौ कउनौ न कउनौ मतलब होइबै करी, बड़े लोगन की बड़ी बात... अइसेहे काहे बतावै लाग, अरे पण्डितौ जी तौ हाथ द्याखत हैं, कुण्डली बांचत हैं..... आगा-पीछा सब बतावत हैं, यही खातिर तौ, कि जउन मुसीबत आवै वाली है वहिका उपाय करा लेव, जग्य-हवन, माला-मंतर सेने सब फिट कराय लेव, एहिमा दूनौ जनेन का फायदा,पण्डितजी का दान-दच्छिना मिलि जाए औ मुसीबतौ टलि जाय......पण्डितौ खुस, जजमानौ खुस। औ जो पण्डित डेरवावैं न, तौ उनहुन का काम न चलै, उनकी तौ यहै रोजी, लगे हाथ लोगन का कल्यानौ होई जात है।

   यू सब स्वाचै के बाद हम स्वाचा, मीडिया वाले मुसीबत तौ बताय दिहिन, कउनौ उपाय तौ बतायेन नहीं........... जरुर कउनौ उपाय होबै न करी नहीं तौ जहाँ एत्ता बतायेन तहाँ उपायौ जरूर बतउतैं...... बस!!!..... यहै बात हमार जिउ लई लीन्हेस..... चार-छा दिन तक खाना पीना कुछौ नीक न लागै....जेहिका देखी, वही पर झउंकि परी....... घरैतिन कहैं, यू तुमका होई का गा है, कउनौ पण्डित-बैद का देखा लेव, कल्हि बड़कए कक्कू खियाँ फोन किया रहै, कहत रहैं, भईया का एतवार-मंगर मा लेति आओ, लल्लन की ससुरार मा याकै हैं, बहुत बढ़िया फूंक डारत हैं। हम कहेन, तुम्हारौ दिमाग फिरि गा है.... अब फूंक डरवाये का फायदा, कक्कू ते कहौ माया-मोह छोड़ि कै भगवत-भजन करैं औ जऊन कुछ नीक-सूख मिलै प्रेम ते खायं।

   एहिके बाद हमका न जाने कउनी- कउनी चिंता सतावै लागीं, पार साल बरमा  जी की बिटिया के बियाहे मा लोहे की अलमारी दीन रहै, आसौं हमरे हियाँ कउनौ कामौ-काज नहीं है। छोटकए भाई के साले पचीस हजार रूपया लई गे रहैं, जो साल भीतर न लउटारेन तौ फिर कउने काम का पइसा....द्याखौ अबहीं उनकी नाक मा दम करित है..... अइसी-तइसी मा गै रिस्तेदारी। बीमा मा तमाम पइसा जमा है, वहिका का होई, बैंक मा दुई-एक छोटी-मोटी रकमौ(FD) जमा हैं, बड़ा असमंजस है, रकम निकारी कि जमा रहै देई.... यहे तना के तमाम बिचार हमका बिचलित करत रहे, फिर हम मन मा स्वाचा कि घूरे पर वाली जमीन के बैनामा मा मिसरा जी से जउन पैंतालिस हजार रूपया लीन रहै, उई अब हम न देबे,कम ते कम साल भर तो नाहेन देबे। जहाँ तक होई सकी सौ- दुई सौ खरचा करि के बिजली का बिलौ न जमा करिबे औ द्याखौ कउनौ बैंक से लम्बे करजा क्यार जुगाड़ लगाईत है........यू बिचार मन मा आवै के बाद कुछ तसल्ली भै।

   घरैतिन कहेन- पायल टूटि गई हैं, जोड़वा देव या नई लई देव, वहिके बाद कहेन- घर मा का है का नहीं कुछौ द्याखत नहीं हौ, ओवाढ़ै -बिछावै का दुई-तीन रजाई-गद्दा बनवा लेव। हम कहेन कउने चक्कर मा परी हौ.....कुछौ जनतिहू हौ कि बेमतलब हमार खोपsड़ी खा रही हौ.... साल भर की बात है, का फायदा पइसा फंसाए, अब तौ जउन बढ़िया ते बढ़िया खा पी सकौ, खा-पी लेव, खुद खाओ औ लरिका-बच्चनौ का खवाओ, काहे ते खावै-पिया साथ जाई। एहिके बाद तौ हमार अउर घरैतिन क्यार आंकड़ै बिगड़ि गा, लेकिन हम खाये-पियै मा कउनौ मुरउवत नहीं किया। बैंक-शैंक मा जहाँ जउन पइसा रहै सब का भोग लागि गवा।

   अउर अब, जब यू साल नीके-नीके बीति रहा है तौ हमार हालत बड़ी पतली होई गै है, सोचित है… बड़ा ध्वाखा होई गा। ई मीडिया वाले हमका लई डारेन, लेकिन उई यू सब कीन्हेन काहे? ........ हमरे पड़ोस मा याकै दिच्छित जी रहत हैं, प्राइमरी स्कूल मा महाट्टर हैं, दुई-चार बार हमरे हियाँ वऊ दावत उड़ा गे रहैं, उई बतायेन ई खबरी चैनल वाले बिग्यापन ते लाखों-करोड़ों कमात हैं, अब चौबीसों घंटा का देखावैं, तौ यहे तना लोगन का उल्लू बनावत हैं, दिच्छित जी यहौ बताएन कि अमरीका वाले..... अरे ऊ का कहत हैं... हाँ! हालीबुड मा, हुवां कोलम्बिया पिच्चर वाले याक पिच्चर बनाइन रहै- दुई हजार बारा ''को-को बची" (2012 who will survive). उई लोग या पिच्चर हजार करोड़ मा बनाय के यहे तना लोगन मा पहिले भरम फइलाएन फिर अड़तीस अरब रूपया कमा लीन्हेन। अच्छा.......!! अब समझेन, यू सब पइसा क्यार खेल रहै औ अमरीका वाले हमरे 'ईमानदार' चैनल वालेन का ई सब लच्छन सिखाइन हैं।

   याक बात अउर याद आ रही है, चैनल वाले कउनौ नाम बतावत रहैं..... कि कहाँ यू सब लिखा रहै..... अरेssss..... अरे हाँ! माया सभ्यता, हाँ- अइसै कुछ कहत रहैं। राम जानै माया सभ्यता रहै कि असभ्यता, यू सब हम नहीं जानित, हाँ एत्ता जरुर जानित है कि हमरे हियाँ मायाराज रहै, अब तौ यहौ लागत है माया सभ्यता मा कही बातन मा कुछ न कुछ सच्चाई जरुर रहै काहे ते हमका खतम करै मा कउनौ कसर तौ छोड़ी नहीं गै, गरीब-गुरबन के इलाज का आठ हजार करोड़ रूपया डकारि गे, गरीब मरै तो मरै, पत्थरन मा लागै वाला पइसौ चांटि-पोंछि गे....... कउनौ कोइला खाए जा रहा है, कउनौ बिकलांगन की कुर्सी-कैलीपर खाए जा रहा है, जऊन फाइल ख्वालौ वही मा हमरे-तुम्हरे कतल की कहानी लिखी है, महँगाई मारे डार रही है, सिलेंडरौ छाहे मिलिहैं, पिटरोल अस्सी रूपया मा होई गा, जिनगी बड़ी मुश्किल होई गै है..... एत्ता होय के बादौ जिन्दा हन यहै बड़ी बात है..... बरम बाबै की किरपा है.... मुला याक बात हम बरम बाबौ ते कहे देइत है, अब ई सूखी किरपा ते काम चलै वाला नहीं है...... अब उनका कउनौ कलंकी औतार लई के भुईं पर आवैहेक परी.......  

रविवार, 7 अक्तूबर 2012

बचपन सुहाना





वो बचपन के क़िस्से, लूडो.. वो पासे 

गिल्ली, वो डंडा, पतंगें........वो कंचे

वो मिट्टी की गुल्लक,वो फ़िल्मों की बकबक
वो काग़ज़ की ऐनक, कपड़े वो लकदक...

वो भूली सी मिस जी, वो टीचर की यादें 
वो छोटा सा बस्ता, वो छोटी किताबें....

वो बचपन की यारी....... यारी के वादे 
वो सतरंगी कॉमिक कोई जीवन में ला दे 

वो मीठा चुराना....... चोरी से खाना...
वो मदरसे न जाना.... बहाने बनाना 

वो वाटर कलर, वो रंगीन दुनिया 
वो सुन्दर सा तोता,पिंजरे की मुनिया 

वो ख़ाली सी जेबें, मचलते से सपने
वो बचपन के झगड़े, पराये वो अपने 

वो पापा की डांट......... मेले वो हाट
राजा बेटा कहाना,वो जन्मदिन के ठाठ 

वो जगमग दीवाली,मस्ती.. वो होरी 
वो मम्मी की लोरी, वो सपनों की गोरी 

बहुत याद आता है गुज़रा ज़माना 
कोई लाके मुझे दे-दे मेरा बचपन सुहाना