गुरुवार, 15 नवंबर 2012

रात बाक़ी न रही...

रात बाक़ी न रही, कोई बात बाक़ी न रही 
टूटे हुए ख़्वाबों की भी बारात बाक़ी न रही

मेरी महफ़िल में तुम आते भी तो कैसे दिलबर 
टूट गए पैमाने और साथ साक़ी न रही

कर दे सुराख़ जो अब पत्थर के कानों में 
किसी आवाज़ में वो औक़ात बाक़ी न रही 

इक दिल था जो हज़ार टुकड़ों में बंटा 
मेरे पहलू में कोई ज़कात बाक़ी न रही 

तेरे इश्क़ की आंधियां चलीं कुछ इस तरह 
ज़िन्दगी में जज़्बात-ओ-सबात बाक़ी न रही

तू न सही, तेरा ग़म ही मयस्सर मुझको 
तुझसे पाने को कोई सौग़ात बाक़ी न रही

हिन्दू हुआ कोई तो कोई मुसलमां हुआ 
हुआ तो यह इन्सां की ज़ात बाक़ी न रही

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