गुरुवार, 24 जनवरी 2013

गणतन्त्र दिवस और बच्चे

विद्यालय के बच्चे गणतंत्र दिवस की तैयारियों के दौरान नारे लगा रहे थे....
महात्मा गाँधी ........... अमर रहें 
चन्द्रशेखर आज़ाद ........... अमर रहें 
सुभाष चन्द्र बोस ........... अमर रहें 
सरदार पटेल ............ अमर रहें 
चाचा नेहरु ............. अमर रहें
बाबा साहिब ............. अमर रहें
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मैं सोच रहा था कि-
" साल में दो दिन नारे लगाने से बच्चे क्या सीखते हैं और इससे उनके व्यक्तित्व में क्या बदलाव संभव है?"

"क्या इस परंपरा का उद्देश्य एक अच्छा अनुसरणकर्ता/रेल का डिब्बा तैयार करना है?"

"हमने विद्यार्थी जीवन में नारे लगाकर क्या सीखा है,कितनी प्रेरणा प्राप्त की है?"

"क्या सिर्फ़ कुछेक अवसरों पर नारे लगाने भर से महापुरुषों के जीवन-दर्शन/ सिद्धांत अमर हो जाते हैं?

" क्या भविष्य में इस सूची में कोई नया नाम जुड़ेगा?"

"क्या अब भारत की पावन धरती से महापुरुषों का उत्पादन नहीं हो रहा और आने वाली पीढ़ियां हमारी तरह इन्हीं महापुरुषों के अमरत्व की गाथाएं गाती रहेंगी?"

मित्रों, उपरोक्त प्रश्नों में यदि आपको कोई गंभीरता नज़र आती हो तो अपने विचार अवश्य रखें......

सोमवार, 14 जनवरी 2013

हाय मीडिया

       दिल्ली रेप काण्ड और फ़िर उसके बाद LOC काण्ड.... एक नज़रिए से देखा जाए तो यह दोनों काण्ड कई अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों से देश की जनता का ध्यान भटकाने वाले साबित हुए हैं।(तात्पर्य यह नहीं कि यह महत्वपूर्ण नहीं) इन दोनों घटनाओं के बाद मीडिया के माध्यम से, मँहगाई, सिलेण्डर, केजरीवाल, वाड्रा प्रकरण, गडकरी प्रकरण, विकलांग उपकरण घोटाला "आदि'' मुद्दों से जनता का ध्यान पूरी तरह भटका दिया गया है। 

       मीडिया जिस तरह ज़ोर-शोर से मुद्दों को उठाती है उसके कुछ समय बाद वे मुद्दे परिदृश्य से ऐसा ग़ायब होते हैं जैसे वे मुद्दे कभी थे ही नहीं।(उदाहरण के लिए कुछ समय पहले पूरी मीडिया, निर्मल बाबा का ख़ून पीने को आमादा दिख रही थी, टैक्स विभाग द्वारा कार्यवाही की ख़बरें भी आई थीं, क्या हुआ? कुछ पता नहीं और वो ठग आज भी पूरी शान से अपनी दुकान चला रहा है। सब तरफ़ सन्नाटा छा गया है) 

       आम आदमी को ऐसा महसूस होता है जैसे किसी फ़िल्म का ट्रेलर दिखाया गया हो, आक्रोश, जिज्ञासा और कौतूहल लिए, उसे यह समझ ही नहीं आता कि पूरी फ़िल्म देखने कहाँ जाना होगा या कभी पूरी फ़िल्म देखने को मिलेगी भी या नहीं....या सिर्फ़ जाँच कमेटी का सेंसर लगाकर सच हमेशा के लिए दफ़्न किया जाता रहेगा। जनता क्लाइमेक्स देखना चाहती है लेकिन जिस तरह से मीडिया मुद्दों को उठाकर TRP का खेल खेलती है और फ़िर कभी फॉलोअप नहीं करती, बड़े सवाल मीडिया पर भी खड़े होते हैं।